Wednesday, November 4, 2009

आप क्यो चाहते हो चुनाव हो ? दंगा हो आतंक हो भष्टाचार हो ? किसान का बिनाश हो? पानी का निजीकरण हो? रोटी का निजीकरण हो ? मकान का निजीकरण हो ?ओक्सीजेन का निजीकरण हो ? नदियों का निजीकरन हो ? पदुषण का निजीकरण हो ?देश की कोई अपनी पहचान हो ? भारत इंडिया के रूप में गुलाम हो ? वो बम बनायेऔर हम खरीदार हो ? वो आतंकबादी भेजे और हम मरने को तैयार हो ? क्यो चाहतो होकी आने वाला समय और ख़राब हो ?आप क्यो चाहते हो चुनाव हो ?
गुंडा हो बदमाश हो ,
आतंकबादी हो,
घोटालेबाज हो,
देश का गद्दार हो ,
चाहे वो देश को तोड़ने को तैयार हो,
फिरभी सांसद हो,
जय हो या फिर भय हो
कुछ हो चाहे हो लेकिन जनता का सब कुछ गय हो समझो

लोकसभा चुनाव रद्द कराने तथा स्विस बैंक में जमाधन वापस भारत लाने के लिए

बहुत ही गर्व के साथ आज आप को मैं पत्र लिख रहा हूँ, मुझे गर्व इस बात का नहीं किहमारे देश को आजाद कराने के लिए लाखों वीरो ने अपने प्राणो की आहूती दी, बल्किमुझे गर्व उन देश के गद्दारो पर हैं जिन्होनें भारत को आजादी से पहले और आजादी केबाद अंगे्रजो का या विदेशीयों का एजेण्ट बनकर भारत को लूटा, उन शहीदों का सपनामुझे अब पूरा होता दिख रहा हैं, लेकिन शर्म इस बात का हैं। कि जिस तरह गाँधी कीइज्जत को माल्या ने बचाया बस उसी तरह भारत की इज्जत इन गद्दारो के पैसो सेबचेगी ,वरना भारत गुलाम था गुलाम हैं और गुलाम ही रहेगा, मैं ये नहीं जानना चाहताकि भारत के किसी प्रधानमंत्री ने भारत की जनता का कितना विकास किया , लेकिन येजरूर चाहता हूँ कि कितना कर्जा भारत के विकास के नाम पर विदेशों से लिया गया,औरलेने देने में कितना कमीशन खा लिया गया, वो चाहे गाँव का प्रधान हो या इस देश काप्रधानमंत्री सभी ने इस देश को बर्बाद करने का सम्पूर्ण प्रयास किया हैं, इसका प्रमाण इसदेश की जनता के पास हैं।
जिसके पास है जितना गाँधी वो उतना ही बड़ा ईमानदार है,
जिसके पास नहीं हैं गाँधी वो सबसे बड़ा गद्दार है।
मत पूछो ये कैसी सरकार है,
जिन लोगो ने धर्म के नाम पर देश के दो टुकड़े किए आज भी उन्हीं की सरकार हैं,
इसलिए तो कहते हैं मेरा भारत महान है।
100 में 99 बंे बेईमान है जो भारत को बेचने के लिए आज भी तैयार है। नेता
जब तिजोरियो में कैद है आजादी के बाद भी गाँधी,
तो कैसे आयेगी इस देश में विकास की आधी।
गाँधी को गोडसे ने मारा तो उनको फाँसी दे दी गई, मगर जो गाँधी को रोज मार रहे हैउनका क्या होगा , भारत को गाँधी सुखी स्मृद्धि और आत्म निर्भर बनाना चाहतेंथे,इसलिए उन्होने स्वराज का नारा दिया लेकिन हमारेदेश के नेता भारत को विदेशबनाना चाहतें है वो भी येसा देश जहा अपना कुछ हो ,सारा विदेश कम्पनीयों का होऔर हमारे देश के लोग विदेशी कम्पनियो के गुलाम हो , जिस तरह अंग्रेजों के होते थे ,गाँधी के बताये रास्तेपर हमारेदेश का कोई नेेता चले चले, लेकिन सारे नेता गाँधी केलिए परेशान कुछ भी करने को तैयार है धर्म, जाति , भाषा ,प्रांत हर मुद्दे को भजानेके लिए बेकरार है, बडे़ दुख के साथ आप से अनुरोध करता हूँ,कि स्विस बैंक में जमा1500 अरब डालर जो भारत की जनता को लूट कर जमा किया गया है, उसको भारतजाए तथा उन देश द्रोहियो को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए ,

SUNDAY, MARCH 8, 2009

स्वाधीनता आंदोलन में महिलाओं की भूमिका

स्वाधीनता आंदोलन की लड़ाई सिर्फ पुरुषों की हिस्सेदारी से फतह नहीं की गयी बल्कि इस महायज्ञ में महिलाओं की भूमिका भी उल्लेखनीय है। यह बात सिर्फ कहने भर के लिए नहीं है और न नाम गिनाने के लिए।
यहां प्रस्तुत है - महिलाओं की सार्थक भूमिका का एक आकलन।

विश्व के महान राष्ट्रों के आविर्भाव से पता चलता है कि आज़ादी के आन्दोलनों की शुरुआत और उन्हें शक्ति और सहयोग देने में महिलाओं का योगदान रहा है- भारत में भी ऐसा ही हुआ है।

भारत में महिलाओं को वैदिक काल से ही महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता रहा है। मनु ने कहा है जहां महिलाओं को सम्मान मिलता है, वहां ईश्वर का वास होता है और जिन परिवारों में महिलाओं का अपमान होता है, वे परिवार बर्बाद हो जाते हैं। वैदिक काल में समाज में स्त्रियों का स्थान बहुत ऊंचा था और उन्हें हर क्षेत्र में पुरुषों का बराबर का साझीदार माना जाता था। मैत्रेयी, गार्गी, सती अनसूया और सीता की कथा किसे नहीं मालूम है।

रानी लक्ष्मी बाई

इस सिलसिले में सबसे पहला नाम जो मस्तिष्क में आता है वह महारानी लक्ष्मी बाई का है। पुरुषों का वस्त्र धारण कर उन्होंने ब्रिटिशों के विरुद्ध युद्ध में अपनी सेना का नेतृत्व किया। यहां तक कि उनके दुश्मन ने भी उनके साहस और बहादुरी की प्रशंसा की। उन्होंने बहादुरी से लड़ाई लडी- यद्यपि वे युद्ध में हार गयीं लेकिन उन्होंने आत्म समर्पण करने से इनकार कर दिया और दुश्मन से लड़ते हुए शहीद हो गयीं। उनके शानदार साहस ने विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष में भारत के अनेक पुरुषों और महिलाओं को प्रेरणा दी।

बेगम हजरत महल

आजादी के संघर्ष में याद की जाने वाली दूसरी महिला थीं- अवध की बेगम बेगम हजरत महल। अंग्रेजों से लखनऊ को बचाने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। यद्यपि वे एक रानी थी और ऐशों आराम की जिन्दगी की अभ्यस्त थीं - लेकिन अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए स्वयं युद्ध के मैदान में उतरीं। बेगम हजरत महल ने जब तक संभव हो सका, अपनी पूरी ताकत से अंग्रेजों का मुकाबला किया। अंततः उन्हें हथियार डाल कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी।

20वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में स्वतंत्रता आंदोलन ने गति पकड़ी और महिलाएं आगे आईं ।

कस्तूरबागांधी

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी ने आजादी के आंदोलन में कुछ अलग

कमला नेहरू

जब अधिकांश नेता जेल में थे - भारत की महिलाएं आगे आईं और सरकार के अत्याचार का सामना किया। उन दिनों कमला नेहरू ने बड़े साहस से काम लिया और इलाहाबाद में संगठन की जिम्मेदारी संभाली। उन्होंने अपना कर्तव्य इस

महात्मा गांधी के नेतृत्व में अनेक पुरुषों और महिलाओं ने अपना जीवन आजादी के संघर्ष के लिए समर्पित कर दिया इनमें से एक सरोजिनी नायडू थीं। 1879 में जन्मी सरोजनी नायडू की शिक्षा मद्रास और कैम्ब्रिज में हुयी थी। कम उम्र में ही उन्होंने देशभक्ति की अनेक ऐसी कविताएं लिखीं जिनसे लोगों को आजादी के लिए संघर्ष में भाग लेने की प्रेरणा मिली। उन्होंने एनी बेसेन्ट द्वारा शुरू किए गए होमरुल आंदोलन में हिस्सा लिया। राजनीति में यह उनका पहला कदम था। गोपाल कृष्ण गोखले के आह्वान पर वे 1915 में कांग्रेस में शामिल हो गयीं। लखनऊ सम्मेलन में उन्होंने अपने जोरदार भाषण में स्वराज्य की विचार धारा की जोरदार वकालत की। 1921 में उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और आगे चल कर देश की आजादी के लिए काम किया। 1925 में वे कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। 1930 में महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया जिसमें वह गांधीजी की प्रमुख सहयोगी रहीं। वह गांधीजी तथा अन्य नेताओं के साथ गिरतार कर लीं गयीं। 1931 में लंदन में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए उन्हें गांधीजी के साथ आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन सफल नहीं हुआ। भारत लौटने पर वह फिर आजादी के संघर्ष में सक्रिय रूप से जुट गयीं और जेल गयीं।

1942 में गांधीजी द्वारा शुरू किया गए भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने हिस्सा लिया और ब्रिटिश शासन का कोप भाजन बन कर एक बार फिर जेल गयीं। 1947 में भारत के आजाद होने पर उन्हें उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। 1 मार्च 1947 को उनका निधन हुआ। वह दुनिया की महिलाओं की बहुत बड़ी हितैषी थीं। उन्होंने देश सेवा के लिए सभी वर्गों की महिलाओं को प्रेरणा दी।

उनकी पुत्री पद्मजा नायडु भी अपनी मां की तरह ही राष्ट्र के हितों के प्रति निष्ठावान थीं। 17 नवंबर 1900 में जन्मी पद्मजा नायडू पर अपनी देशभक्त मां का काफी असर था। 21 वर्ष की उम्र में वह राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरीं और हैदराबाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की संयुक्त संस्थापिका बन गयीं। उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि की और उन्होंने लोगों खादी का प्रचार करते हुए विदेशी सामान का बहिष्कार करने की प्रेरणा दीं। 1942 में गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें जेल जाना पड़ा। आजादी के बाद वह संसद की सदस्य बनीं और बाद में पश्चिम बंगाल की राज्यपाल बनायी गयीं। लगभग 50 वर्ष के सार्वजनिक जीवन में वे रेडक्रास से भी जुड़ हुयी थीं। 2 मई 1975 में उनका देहांत हो गया। राष्ट्र के लिए उनकी सेवाएं खासतौर से उनका माननीय दृष्टिकोण हमेशा याद किया जाएगा।

विजय लक्ष्मी पंडित

देश के लिए नेहरू परिवार ने जो महान बलिदान और योगदान किया है, राष्ट्र उसे हमेशा याद रखेगा। स्वतंत्रता आंदोलन में पंडित जवाहर लाल की बहन विजय लक्ष्मी पंडित के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 15 अगस्त 1900 में उनका जन्म हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा मुख्य रूप से घर में ही हुयी। 1936 और 1946 में वह उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए चुनी गयीं और मंत्री बनायी गयीं। मंत्री स्तर का दर्जा पाने वाली भारत की वह प्रथम महिला थीं। 1932, 1941 और 1942 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें जेल की सजा हुयी। आजादी के बाद भी उन्होंने देश सेवा जारी रखी। संयुक्त राष्ट्र की अध्यक्ष बनने वाली वह विश्व की पहली महिला थीं। वे राज्यपाल और राजदूत जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर रहीं।

सुचेता कृपलानी

स्वतंत्रता आंदोलन में श्रीमती सुचेता कृपलानी के योगदान को भी हमेशा याद किया जाएगा। 1908 में जन्मी सुचेता जी की शिक्षा लाहौर और दिल्ली में हुई थी। आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें जेल की सजा हुई। 1946 में वह संविधान सभा की सदस्य चुनी गई। 1958 से 1960 तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महासचिव थी। 1963 से 1967 तक वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। 1 दिसंबर 1974 को उनका निधन हो गया। अपने शोक संदेश में श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा कि ‘‘सुचेता जी ऐसे दुर्लभ साहस और चरित्र की महिला थीं, जिनसे भारतीय महिलाओं को सम्मान मिलता है।‘‘

लीलाबती मुंशी

स्वतंत्रता आंदोलन में श्रीमती लीलावती मुंशी का योगदान कम नहीं था। आजादी के संघर्ष में भाग लेने के लिए वे तीन बार जेल गयीं। अपने लेखन और भाषणों से उन्होंने अनेक लोगों को प्रेरणा दीं।

इनके अलावा ऐसे अनेक कवि, दार्शनिक और लेखक थे जिन्होंने अपनी कविताओं और लेखन आदि से लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनमें तारु दत्त, स्वरन्स कुमारी घोषाल, सरला देवी चैधरी और कामिनी बाई प्रमुख हैं।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को इंदिरा गांधी के रूप में पहली महिला प्रधानमंत्री देने का श्रेय प्राप्त है। 70 करोड़ भारतीयों के प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी सबसे सफल और लोकप्रिय रही हैं, इसके पहले आजादी के आंदोलन में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान किया था। 19 नवम्बर 1917 में इलाहाबाद के आनंद भवन में उनका जन्म हुआ। उनकी शिक्षा इलाहाबाद, पूना, बम्बई, विश्वभारती और आक्सफोर्ड में समर विले कालेज में हुयी थी। अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के लिखे पत्रों के माध्यम से उन्होंने विश्व इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया। 1921 में चार वर्ष की उम्र में पहली बार उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सा लिया। 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने लड़के और लड़कियों का एक चरखा संघ और वानर सेना का गठन किया। इसका उद्देश्य सविनय अवज्ञा आंदोलन में मदद करना और एक ठोस आधार के साथ उसे बढ़ावा देना था। उन्होंने श्रीयुत कृष्ण मेनन के नेतृत्व में इंडियन लीग में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। 1938 में वह कांग्रेस की सदस्य बनीं और स्वतंत्रता आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ी रहीं। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान शादी के तुरंत बाद उन्हें अपने पति के साथ गिरतार करके नैनी जेल भेज दिया गया। वे गांवों में खासतौर से महिलाओं से सम्पर्क कायम करने में बराबर सक्रिय रहीं। 1947 में दिल्ली के दंगा पीड़ित क्षेत्रों में गांधी जी के निर्देशों के अनुसार उन्होंने काम किया। आजादी के बाद वे पंडित नेहरू की सबसे निकट राजनीतिक सहयोगी बनी।

इंदिरा गांधी

इंदिरा जी नियति की बालिका थी। हाल के इतिहास में ऐसे बहुत ही कम लोग हुए होंगे जिन्हें सत्ता से कोई मोह न होने के बावजूद इतना उत्तरदायित्व और अधिकार सौंपा गया हो जितना इंदिरा गांधी के कंधों पर सौंपा गया।

वह जिस किसी भी ऊंचे पद पर रहीं, उसके लिए खुद कोई प्रयास नहीं किया बल्कि वह पद उन्हें थोप दिया गया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका और उनके द्वारा उठाए गए कदमों तथा उनके 20 सूत्रीय कार्यक्रम भारत के इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।

इंदिरा गांधी अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन अब हमारे बीच एक युवा और उत्साही प्रधानमंत्री राजीव गांधी हैं जिन्होंने अपने पहले नीति वक्तव्य में वादा किया है कि वे इंदिरा जी की नीतियों से अलग नहीं हटेंगें।

इंदिरा जी ने देशवासियों खासतौर से दबे लोगों की सेवा करने के लिए आंदोलन शुरू करने आह्वान किया था। यह एक महान आंदोलन है जिससे हमारे देश का भाग्य बदला जा सकता है। हम यह कह सकते हैं कि अव्यवस्था और विवाद, घृणा और मतभेद, विद्रोह और संघर्ष के सभी दिनों में महिलाओं ने भारत के वर्तमान स्वरूप को बनाने में योगदान किया है।

THURSDAY, MARCH 5, 2009

आर्थिक और राजनीतिक असंतोष

सैनिक क्रांति को कुचलकर भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को बचा लिया गया। ईस्ट इंडिया कंपनी की खुल्लम-खुल्ला लूट का दौर समाप्त हो गया। महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया और नई नीतियों का युग शुरू हआ। मोेटे तौर पर कहा जाए तो सैनिक क्रांति वास्तव में नए पश्चिमी विचारकों, धार्मिक हस्तक्षेप और क्षीण होते हुए भारतीय सामंती सरदारों के खिलाफ विद्रोह था। इन नीतियों को समाप्त किया जाना था। लेकिन नई नीतियां वास्तव में अधिक प्रतिक्रियावादी और आगे चलकर पुरानी नीतियों के मुकाबले अधिक नुकसानदेह साबित हुईं। रियासती शासक ब्रिटिश सरकार के हाथों की कठपुतली बन गए, उन्हें विरोधी और प्रगतिशील ताकतों के खिलाफ ढाल के रूप इस्तेमाल किया गया। सरकार सामाजिक सुधारकों को बढ़ाया नहीं देती थी। अब मुख्य रूप से क्षीण होते हुए अत्याचारों, अंधविश्वासों और परम्परा विरोधी धार्मिक सिद्धांतों और संप्रदायों को सावधानीपूर्वक संरक्षण दिया जा रहा था। इन्हीं सब नीतियों से बाद में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्वरूप विकसित हुआ और इसकी जड़ें धार्मिक मतभेदों, जातिप्रथा और अस्पृश्यता तथा सामंती राज्यों और आभिजात्य वर्ग के बीच गहरी पैठ गयी थीं।

लेकिन आर्थिक शोषण की नीति ने और विकराल लेकिन सूक्ष्म स्वरूप ग्रहण कर लिया। बढ़ती हुई गरीबी और किसानों की बेबसी के परिणामस्वरूप व्यापक जनसंतोष उभरना लाज़िमी था।

आम जनता हिन्दुओं और मुसलमानों ने जहां कहीं संभव हुआ हर संभव तीरकों से इस भीषण दमन के इस भीषण दमन के खिलाफ संघर्ष किया। एक नई अंगे्रजी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षित वर्ग सरकारी कामकाज चला रहा था। हर पश्चिमी चीज के समर्थक सरकार को पूर्ण सहयोग दे रहे थे। लेकिन उनकी इस दासता ने जल्दी ही उन्हें अपनी असली स्थिति का अहसास करा दिया। उन्हें सैनिक पदों और सरकार में ऊंचे पदों से अलग-थलग कर दिया गया। लेकिन एक तरफ अकाल की स्थिति और दूसरी तरफ सरकार के अंधाधुंध खर्च और भारत के उद्योगों और खुशहाली के सुनियोजित विनाश का भान होने में बहुत अधिक समय नहीं लगा। भारत के मूल निवासियों के प्रति अंग्रेजी के कटु व्यवहार से यह निराशा और फैली और इस अपमान को बड़े पैमाने पर अनुभव किया जा रहा था।

सरकार के विभिन्न कार्यों से, उदारवादी सोच और संस्थाओं की अंग्रेजी परंपरा में शिक्षित वर्गों की आस्था को ठेस पहुंची। मैटकाफ ने प्रेस की आजादी की जो प्रथा शुरू की थी उसे समाप्त कर दिया गया। 1878 में स्वदेशी प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया और बंगला की अमृत बाजार पत्रिका को रातों रात अंगे्रजी बाना पहनना पड़ा। 1879 में शस्त्र अधिनियम पास किया गया। यह निराशा तब और भी बढ़ गयी जब जातीय भेद के आधार पर न्यायिक भेदभाव समाप्त करने के इलबर्ट विधेयक को यूरोपीय समुदाय और सिविल सेवाओं के कडे़ विरोध के कारण बीच में ही छोड़ दिया गया। यूरोप के लोग वायसराय लार्ड रिपन को यह धमकी देने से भी नहीं हिचके कि अगर यह विधेयक पास किया गया तो बडे़ पैमाने पर हिंसा होगी। इससे भारतीयों ने एक ऐसा सब सीखा जिसे भुलाया नहीं जा सकता। 1853 में पहली सूती कपड़ा मिल की स्थापना बम्बई में की गयी। 1880 तक इन मिलों की संख्या 156 हो गयी। इस दिशा में बड़ी तेजी से प्रगति हुई और लंकाशायर के दबाव में आकर 1882 में भारत में कपास का आयात पर लगे सभी शुल्क पूरी तरह हटा लिए गए।

स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारों का योगदान आदर्श आज कहाँ है ?

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारों के योगदान की आज चर्चा करनी पड़ रही है, परंतु जिस समय स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था, उस समय इसकी आवश्यकता नहीं थी। सन् 1857 के विप्लव को भारतीय स्वाधीनता संग्राम का पहला युद्ध माना जाता है। उस समय तक समाचारपत्रों का बड़ा प्रचार नहीं हुआ था और आज जिस रूप में समाचारपत्र हमें प्राप्त होते हैं, वह बहुत संभव भी नहीं था। भारत में समाचारपत्र निकले थे लेकिन 1836 में ‘समाचार चन्द्रिका‘ की 250 प्रतियां छपती थीं, ‘समाचार दर्पण‘ की 298 ‘बंगदूत‘ की 70 से भी कम, ‘पूर्णचन्द्रोदय‘ की 100 और ‘ज्ञानेनेशुन की 200। सन् 1839 में कलकत्ता में, जो उस समय भारत की राजधानी थी, यूरोपियनों के 26 पत्र निकलते थे, जिनमें 6 दैनिक थे और 9 भारतीय पत्र थे, जिनमें एक ‘संवाद प्रभाकर‘ 14 जून, 1839 को दैनिक हुआ था। बंगला, हिन्दी, उर्दू और फारसी के जो पत्र कलकत्ता से निकले वे प्रायः सभी साप्ताहिक थे। उसका कारण था, दैनिक पत्रों के लिए सबसे बड़ा साधन और आवश्यकता तार की होती है। कलकत्ता से आगरा होकर बम्बई और बम्बई से मद्रास तथा आगरा से पेशावर तक की तार की लाइनें 1855 में ही खोली गयीं। समाचारपत्रों को एक ही दर पर डाक से भेजने की प्रक्रिया 1857 में शुरू हुई थी। उससे पहले 20 वर्षों तक दूरी के हिसाब से डाक-टिकट देना पड़ता था। समाचारपत्रों को ले जाने लाइनें भी 1857 में शुरू हुईं, जब 274 मील की रेलवे लाइनें खोली गयीं। इस प्रकार इस काल से पहले बहुत प्रचार वाले या दैनिक समाचारपत्रों का आविर्भाव संभव नहीं था, फिर भी देश में ऐसे पत्र निकले जिन्होंने राष्ट्रीय चेतना में बड़ा योगदान दिया। जिनको हम आज देश के बड़े-बड़े नेता मानते हैं, उन्होंने जनता को नेतृत्व, समाचारपत्रों के माध्यम से ही देना शुरू किया। 15 नवम्बर, 1851 को श्री दादाभाई नौराजी ने गुजराती में ‘रास्तगुफ्तार‘ नामक पत्र निकाला था। राजा राममोहन राय का ‘बंगदूत‘ जो एक-साथ बंगला, हिन्दी, फारसी और अंग्रेजी में छपता था, समाज सुधार का पत्र था। और ज्ञानेनेशन भारतीय भाषाओं में शिक्षा की और बंगला भाषा को सरकारी भाषा की मांग करने के लिए प्रसिद्ध था। सन् 1857 में पयामे आज़ादी के नाम से उर्दू तथा हिन्दी में एक पत्र प्रकाशित हुआ जो अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का प्रचारक था और जिसको ज़ब्त कर लिया गया था। जिस किसी के पास उसकी प्रति पायी जाती थी, उसे राजद्रोह का दोषी माना जाता था और कठोर से कठोर सज़ा दी जाती थी। सन् 1857 में ही हिन्दी के प्रथम दैनिक ‘समाचार सुधावर्षण‘ और उर्दू-फारसी के दो समाचारपत्रों ‘दूरबीन‘ और ‘सुलतान-उल-अखबार‘ के विरुद्ध यह मुकदमा चला कि उन्होंने बादशाह बहादुरशाह जफर का एक फरमान छापा जिसमें लोगों से मांग की गयी थी कि अंग्रेजों को भारत से बाहर निकाल दें। इस पत्र के सम्पादक श्री श्यामसुंदर सेन दिन भर की सुनवाई के बाद राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिये गये और इसके बाद ही लार्ड केनिंग का प्रसिद्ध गैगिंग-एक्ट पारित हुआ, जिसमें समाचारपत्रों पर बहुत बंधन लगाये गये थे।

लार्ड केनिंग ने अपने इस भाषण में यह सूचना दी कि भारतीय जनता के हृदय में इन समाचारपत्रों ने, जो भारतीयों द्वारा छपते थे, सूचना देने के बहाने कितना राजद्रोह लोगों के दिलों में भर दिया। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी यह टिप्पणी भारतीय द्वारा संचालित पत्रों के संबंध में थी, यूरोपियन पत्रों के सिलसिले में नहीं। इस रिपोर्ट के बाद कहने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में, जिसे मुख्यतया सिपाहियों का विद्रोह कहा जाता है या जिसके पीछे नाना साहब, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, अवध की बेगम या बहादुरशाह ज़फर जैसे राजा-महाराजाओं नवाबों और बादशाहों का असंतोष माना जाता है, भारतीय पत्रकारों से कम प्रभावित नहीं था। ये विचार केवल उत्तर भारत के समाचारपत्रों के बारे में ही नहीं थे, बम्बई के गवर्नर लार्ड एलफिंस्टन ने भी जो बड़े उदार माने जाते थे, इनका समर्थन किया था। इसका परिणाम यह हुआ कि श्री द्वारिकानाथ ठाकुर द्वारा संचालित बंगाल हरकारु‘ पत्र का प्रकाशन 19 सितम्बर से लेकर 24 सितम्बर 1857 तक स्थगित कर दिया गया और उसे प्रकाशित होने का नया लाइसेंस तभी मिला जब उसके सम्पादक ने त्यागपत्र दे दिया। पश्चिमोत्तर प्रांत (यू.पी.) के प्रायः सभी उर्दू पत्र बंद हो गये। कुछ हिन्दी पत्र भी काल कवलित हुए।

भारत में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध संघर्ष के क्षेत्र में जिन समाचारपत्रों का विशेष उल्लेख करना आवश्यक है, उनमें कलकत्ता का ‘हिन्दू पेट्रियट‘ मुख्य था, जिसकी स्थापना 1853 में लेखक व नाटककार श्री गिरीशचंद्र घोष ने की थी और जो श्री हरीशचंद्र मुखर्जी ने नेतृत्व में असाधारण लोकप्रियता प्राप्त कर गया। सन् 1861 में इस पत्र में नाटक ‘नील दर्पण‘ निकला जिसने निलहे गोरे व्यापारियों के विरुद्ध नील की खेती को खत्म करने के लिए आंदोलन चलाया और इसके फलस्वरूप एक नील कमीशन की नियुक्ति हो गयी। बाद में यह पत्र श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर के हाथ में आ गया और श्री ब्रिस्टोदास पाल इसके सम्पादक नियुक्त हुए। इस पत्र ने सरकारी ज्यादतियों का जमकर विरोध किया और यह मांग की कि सरकार की नौकरियों में भारतीयों को प्रवेश दिया जाये। सन् 1878 में जो देशी भाषाई समाचारपत्र विरोधी कानून पास हुआ, उसका इसने कसकर विरोध किया। ‘इंडियन मिरर‘ कलकत्ता का दूसरा ऐसा प्रसिद्ध पत्र था।

उन दिनों बंगाल में जैसोर से प्रकाशित एक साप्ताहिक पत्र चल रहा था जिसका नाम था - ‘अमृत बाज़ार पत्रिका‘। इस पत्र के संचालकों पर सरकारी कर्मचारियों की आलोचना करने का मुकदमा चला और सज़ाएं हुईं। सन् 1871 में यह कलकत्ता से प्रकाशित होने लगा और विशेषतया इसी पत्र को दबाने के लिए 1878 का देशी भाषा पत्र कानून पास हुआ था। लेकिन इस पत्र के सम्पादकों ने जिनमें श्री शिशिर कुमार घोष और श्री मोतीला घोष दो भाई थे, इसे रातोंरात अंग्रेजी का पत्र बना दिया। इसके बाद यह पत्र भारतीय स्वाधीनता संग्राम का प्रबल समर्थक रहा। सन् 1868 में फिर प्रसिद्ध पत्रकार श्री गिरीशन्द्र घोष ने ‘बंगाली‘ नाम से एक साप्ताहिक निकाला था। कुछ दिनों बाद श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस पत्र को खरीद लिया और इसके बाद यह पत्र बंगाल में ही नहीं, सारे देश में स्वाधीनता संग्राम का एक प्रबल पक्षधर हो गया। उन्होंने एक लेख कलकत्ता हाईकोर्ट के एक निश्चय के बारे में लिखा, जिस सिलसिले में उन्हें एक महीने की सज़ा हुई। श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी कांग्रेस के आदि जनकों में से थे। सन् 1886 से लेकर बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेता रहे और यह समझा जाता रहा कि कांग्रेस जिन दो-तीन नेताओं के बल पर चलती थी उनमें एक श्री बनर्जी थे। वे बंगाल के अपने समय के सर्वोच्च नेता माने जाते थे। वे सर्वप्रथम 1895 में पूना में होने वाले 11वें अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये और यह समझा गया कि कांग्रेस के जीवन का दूसरा चरण उनकी अध्यक्षता से प्रारंभ हुआ। दिसम्बर, 1902 में अहमदाबाद में कांग्रेस का जो 18वां अधिवेशन हुआ, उसके भी वे अध्यक्ष चुने गये।

पूना में 1849 में ‘ज्ञान प्रकाश‘ का प्रकाशन हुआ था। इसका प्रबंध पूना की सार्वजनिक सभा ने ले लिया था और यह सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर बहुत प्रभावशाली ढंग से लिखता था। इसी संगठन ने पूना में कांग्रेस बुलाने का निर्णय किया था। महाराष्ट्र के सार्वजनिक जीवन के एक प्रकार से आदि-संस्थापक श्री महादेव गोबिन्द रानाडे भी इसमें तथा ‘इन्दु प्रकाश‘ जो अंग्रेजी में लिखते थे। कुछ दिनों बाद इस पत्र के सम्पादक श्री कृष्ण शास्त्री चिपलूणकर के पुत्र श्री विष्णु शास्त्री चिपलूणकर, श्री जी. जी. आगरकर और श्री बाल गंगाधर तिलक ने मिलकर 1 जनवरी, 1881 से मराठी में ‘केसरी‘ और अंग्रेजी में ‘मराठा‘ नामक दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित किये। ‘डैकेन स्टार‘ नामक अंग्रेजी पत्र के सम्पादक श्री नाम जोशी भी इसमें आ गये और यह पत्र ‘मराठा‘ में मिला लिया गया। कोल्हापुर के दीवान के विरुद्ध एक लेख छापने पर श्री तिलक और श्री आगरकर को सज़ा हुई और बाद में जब 1897 में पूना में प्लेग फैला और कमिश्नर रैंड के अत्याचार असहनीय हो गये तो लोकमान्य तिलक ने 4 मई, 1897 में एक लेख छापा जिसमें लिखा था- ‘‘बीमारी तो एक बहाना है, वास्तव में सरकार लोगों की आत्मा को कुचलना चाहती है। मिस्टर रैंड अत्याचारी हैं और जो कुछ वे कर रहे हैं, वो सरकार की आज्ञा से ही कर रहे हैं, इसलिए सरकार के पास प्रार्थना देना व्यर्थ है।‘‘ इस प्रकार के लेखों के पश्चात् चापेकर बन्धुओं ने 22 जून को श्री रैंड की हत्या कर दी थी। 15 जून को ‘केसरी‘ में श्री तिलक का जो अग्रलेख निकला था, उसको लेकर उन्हें डेढ़ वर्ष की सज़ा दी गयी और इसके बाद लोकमान्य तिलक भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अत्यंत प्रमुख नेता स्वीकार कर लिये गये। उनका ‘केसरी‘ सारे भारत में स्वाधीनता संग्राम का एक प्रबल प्रचारक बन गया जिसने बंग-भंग विरोधी आंदोलन को देशव्यापी बना दिया। और उन्हें 1908 में राजद्रोह संबंधी बैठक, अध्यादेश और विधेयक का विरोध करने के लिए छह वर्ष के काले पानी की सज़ा दी गयी। ‘केसरी‘ और ‘मराठा‘ स्वाधीनता आंदोलन के प्रमुख प्रवर्तक बन गये और सारे देश में उनका आदर्श अनुकरणीय माना गया। नागपुर और बनारस से ‘हिन्दी केसरी‘ निकला और जब 1920 में बनारस से ‘आज‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो उस संबंध में दिशा-निर्देश लेने के लिए श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर, लोकमान्य तिलक से मिलने पूना गये थे।

जिस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ, सम्पादकों की कितनी प्रतिष्ठा थी, इसका अंदाज़ इस बात से लग सकता है कि जब श्रीमती एनी बेंसेंट ने 1915 तक के कांग्रेस का इतिहास ‘हाऊ इंडिया रौट फार फ्रीडम‘ नाम से लिखा और उसमें कहा, ‘‘जब हम उन सूचियों को देखते हैं कि कौन लोग उपस्थित थे और उनमें कितने ऐसे हैं जो भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में प्रसिद्ध हो गये। प्रतिनिधियों में उल्लेख किया जा सकता है- प्रसिद्ध भारतीय पत्रों के प्रमुख सम्पादकों का, ‘ज्ञान प्रकाश‘ के, पूना की सार्वजनिक सभा के ‘क्वार्टरली जर्नल‘ के, ‘मराठा‘, ‘केसरी‘, ‘नवविभाकर‘, ‘इंडियन मिरर‘, ‘नाशेन‘, ‘हिन्दुस्तानी‘, ‘ट्रिब्यून‘, ‘इंडियन यूनियन‘, ‘इंडियन स्पैक्टेटर‘, ‘इन्दु प्रकाश‘, ‘हिन्दू‘ और ‘क्रीसेंट‘ के। कितने नाम चमकते हैं परिचित और सम्मानित। यहां पर शिमला से ए.ओ. ह्यूम हैं, कलकत्ता से डब्ल्यू.सी. बनर्जी और नरेन्द्रनाथ सेन हैं, पूना से डब्ल्यू.एस. आप्टे और जी.जी. आगरकर, दादाभाई नौरोजी, के.टी. तेलंग और फीरोज़शाह मेहता हैं जो तब और अब भी बम्बई नगर निगम के नेता हैं और बम्बई से दिनशा ईदुलजी वाचा, बी.एम. मलाबारी और एन.जी. चन्दावरकर, मद्रास से एस. सुब्रामण्य अय्यर और एम. वीर राघवाचारियार हैं और अंतपुर से श्री पी. केशव पिल्लै हैं। ये वे लोग हैं जिन्होंने प्रारंभ से भारतीय आज़ादी के लिए कार्य किया और उनमें से जो आज भी जीवित हैं वह उसी कार्य के लिए अभी भी लगे हुए हैं।‘‘

इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन लोगों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रथम दिन आज़ादी के कार्य में प्रतिनिधियों की सूची में सर्वप्रथम स्थान दिया गया, वे भारतीय समाचारपत्रों के कुछ सम्पादक थे। यह बात सिर्फ श्रीमती एनी बेसेंट ने ही लिखी हो, ऐसा नहीं है। जब कांग्रेस के अध्यक्ष प्रसिद्ध बैरिस्टर श्री ब्योमेशचंद्र बनर्जी ने अपना भाषण दिया तो उन्होंने कहा, ‘‘केवल यही बात नहीं है, इस बैठक में सभी प्रांतों के प्रतिनिधि हैं। प्रायः इस साम्राज्य में जितने भी राजनीतिक संगठन हैं, उनके एक या एक से अधिक प्रतिनिधि यहां मौजूद हैं। जहां तक पत्रकारों का संबंध है- ‘मिरर‘, ‘हिन्दू‘, ‘इंडियन स्पैक्टेटर‘, ‘ट्रिब्यून‘ तथा अन्य पत्रों के संचालकों, सम्पादकों या प्रतिनिधियों की उपस्थिति ने यह सिद्ध कर दिया है कि वे भावनाएं कितनी सर्व-व्यापी हैं, जिनका परिणाम इस बड़ी और स्मारक बैठक के रूप में पल्लवित हुआ है। निस्संदेह ऐतिहासिक काल में कभी भी इतनी महत्वपूर्ण और व्यापक सभा भारत की भूमि में नहीं हुई।‘‘

लेकिन इन सम्पादकों को और समाचारपत्रों को केवल उपस्थित होना ही काफी नहीं माना गया। पहली कांग्रेस का पहला प्रस्ताव मद्रास के ‘हिन्दु‘ के सम्पादक जी. सुब्रामण्य अय्यर ने पेश किया था, जिसमें यह मांग की गयी थी कि सरकार भारतीय प्रशासन की जांच के लिए एक आयोग नियुक्त करे। श्रीमती बीसेंट ने उनके बारे में कहा था कि वे मद्रास के नेताओं में सबसे साहसी और दूर-दृष्टि रखने वाले नेता थे और उन्होंने जिस प्रशंसनीय भाषण के द्वारा प्रथम प्रस्ताव उपस्थित किया, वो बहुत कुछ आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है। दूसरा प्रस्ताव भी कि इंडिया कौंसिल को जो ब्रिटेन में बैठकर भारत पर राज करती है, समाप्त कर दिया जाये, पूना के पत्रकार श्री चिपलूणकर ने पेश किया था और तीसरे प्रस्ताव का समर्थन श्री दादाभाई नौरोजी ने किया था, जिनके पत्र का हम उल्लेख कर चुके हैं। चैथा प्रस्ताव भी उन्होंने पेश किया था और में होने वाली कांग्रेस के अध्यक्ष थे बल्कि उन्होंने अमृतसर की 1893 की कांग्रेस की भी अध्यक्षता की थी। तब वे ब्रिटेन के हाउस आफ कामन्स के भी सदस्य हो गये थे।

कांग्रेस के अन्य अध्यक्षों में अनेक ऐसे थे जो या सम्पादक रहे या जिन्होंने किसी बड़े पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया। इनमें प्रमुख थे श्री फीरोज़शाह मेहता, जिन्होंने प्रसिद्ध पत्र ‘बाम्बे क्रोनिकल‘ की स्थापना की। श्री मदनमोहन मालवीय, जिन्होंने ‘दैनिक हिन्दुस्तान‘ का सम्पादन किया तथा साप्ताहिक और दैनिक ‘अभ्युदय‘ निकाला तथा जिनकी प्रेरणा से प्रयाग में ‘लीडर‘ निकला और दिल्ली के हिन्दुस्तान टाइम्स को राष्ट्रीय पत्र का स्वरूप प्राप्त हुआ। पंडित मोतीलाल नेहरु ‘लीडर‘ पत्र के निदेशक मंडल के प्रथम अध्यक्ष थे और ‘लीडर‘ से जमानत मांगी गयी थी तो उन्होंने कहा था कि जब तक मेरे घर में एक भी ईंट है तब तक मैं ‘लीडर‘ को मरने नहीं दूंगा। उन्होंने ‘इंडीपेंडेंट‘ पत्र की भी स्थापना की। लाला लाजपतराय की प्रेरणा से ‘पंजाबी‘, ‘बंदेमातरम्‘ और ‘पीपुल‘ नाम के तीन पत्र लाहौर से निकले। महात्मा गांधी जब अफ्रीका में थे, तभी उन्होंने ‘इंडियन ओपीनियन‘ नाम का पत्र निकाला था और भारत में आकर ‘यंग इंडिया‘, ‘नवजीवन‘, ‘हरिजन‘ ‘हरिजन सेवक‘ और ‘हरिजन बन्धु‘ जैसे पत्र निकाले। जे.एम. सेनगुप्त और श्री चित्तरंजन दास यद्यपि पत्रकार नहीं थे परंतु उन्होंने ‘और एडवांस‘ ‘फारवर्ड‘ जैसे पत्रों को राष्ट्रीय पत्रों के रूप में चलाया। श्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘नेशनल हेराल्ड‘ पत्र की स्थापना की और उसमें लिखा भी। यद्यपि उन्होंने सम्पादक को लिखने की पूरी आज़ादी दी थी परंतु महत्वपूर्ण प्रश्नों पर वे स्वयं लिखते थे।

जहां तक क्रांतिकारी आंदोलन का संबंध है, भारत का क्रांतिकारी आंदोलन बंदूक और बम के साथ नहीं, समाचारपत्रों से शुरू हुआ। जिनमें कुछ नाम अत्यंत गौरवशाली है। सर्वप्रथम है- ‘युगांतर‘, जिसका प्रकाशन और सम्पादन श्री अरविन्द घोष के छोटे भाई श्री वारीन्द्र कुमार घोष ने, श्री भूपेन्द्रनाथ दत्त तथा श्री अविनाश भट्टाचार्य की सहायता से किया और बाद में जब समाचारपत्र बंद हो गया तो उसी के कार्यकर्ताओं ने एक क्रांतिकारी दल संगठित किया, जो ‘युगांतर‘ गुट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। 1908 में इस पत्र की प्रसार संख्या 8 हज़ार प्रतियां थी। जब समाचारपत्रों द्वारा अपराध भड़काने संबंधी कानून के अंतर्गत इसे बंद कर दिया गया तो चीफ जस्टिस सर लारेंस जैकिनसन ने इस पत्र के बारे में लिखा था - ‘‘इनकी हरेक पंक्ति से अंग्रेजों के प्रति विद्वेष टपकता है। हरेक शब्द से क्रांति के लिए उत्तेजना झलकती है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार क्रांति होती है।‘‘ रौलेट रिपोर्ट में भी, जो दस साल बाद लिखी गयी थी, ‘युगांतर‘ के बहुत से उद्धहरण दिये गये, जिससे यह साबित किया जा सके कि किस तरह इस पत्र ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्वेष भड़काया और लोगों को क्रांति के लिए उकसाया। उसमें एक जगह यह मान लिया गया कि इस अखबार की पन्द्रह हज़ार प्रतियां छपती हैं और साठ हज़ार लोग उसे पढ़ते हैं। जब अमरीका में गदर पार्टी की स्थापना हुई तो लाला हरदयाल ने सान फ्रासिंस्को में पार्टी के कार्यालय तथा ‘गदर‘ पत्र के प्रकाशन स्थल का नाम युगांतर आश्रम रखा।

स्वयं ‘गदर‘ अखबार अपने आप में क्रांति का बड़ा दूत था। यह एक वर्ष के काल में ही हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, मराठी और अंग्रेजी में निकलने लगा और कुल मिलाकर इसकी लाखों प्रतियां छपती थीं और भारत से बाहर जहां-जहां भी भारतीय थे, उनको भेजी जाती। यही नहीं उन्हें भारत भी बड़ी चतुराई से भेजा जाता था। जब लाला हरदयाल को अमरीका में गिरफ्तार किया गया और वे अमरीका छोड़कर भारत चले आये तो उनके उत्तराधिकारी पंडित रामचंद्र ने ‘हिन्दुस्तान गदर‘ के नाम से उसका अंग्रेज़ी संस्करण भी निकाला। प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो जाने पर और अमरीका के उसमें सम्मिलित हो जाने पर गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं को अमरीका सरकार ने पकड़ लिया और मुकदमें के दौरान पंडित रामचंद्र को उनके एक प्रतिद्वंद्वी अभियुक्त ने चोरी से बंदूक मंगाकर उन्हें जेल में ही मार डाला और इस प्रकार इस पत्र का प्रकाशन बंद हो गया। परंतु इस पत्र ने 1915 में भारत को स्वाधीन कराने में जो विशाल आंदोलन हुआ, उसमें बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। रौलेट कमेटी ने इस पत्र का स्थान-स्थान पर उल्लेख किया और जिसके पास भी यह पत्र पाया गया, उसे धर पकड़ लिया गया।

विदेशों में समाचारपत्र द्वारा भारतीय स्वाधीनता के लिए प्रयास का इतिहास काफी पुराना है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने प्रारंभ से ही ब्रिटेन में कांग्रेस की एक शाखा स्थापित की, जिसकी ओर से ‘इंडिया‘ नाम का एक पत्र प्रकाशित होता था और उसका खर्च कांग्रेस की ओर से दिया जाता था। जब तक यह कमेटी चली यानी बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक यह पत्र कांग्रेस के दृष्टिकोण को प्रकट करता रहा। सन् 1905 में श्री श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन से ‘इंडियन सोशोलाजिस्ट‘ नाम की एक पत्रिका निकाली। यह पत्र जनवरी में निकला था और भारत भी भेजा जाता था तथा जहां-जहां भारतीय थे, वहां भी भेजा जाता था। 18 फरवरी 1905 को लंदन में एक ‘इंडियन होम रूल‘ सोसायटी की स्थापना की गयी और पहली जुलाई से लंदन में एक ‘इंडिया हाउस‘ या ‘भारत भवन‘ नाम का भारतीय छात्रों का होस्टल खोला गया। जब इसका उद्घाटन हुआ तो श्री दादाभाई नौरोजी और लाला लाजपतराय भी इस मौके पर उपस्थित थे। यह समाचारपत्र इंडिया हाउस में जो राजनीतिक कार्रवाई

‘युगांतर‘ के बाद भारत में ‘बन्देमातरम् पत्र ने राष्ट्रीय आंदोलन में बड़ी भूमिका निभायी। इसकी स्थापना श्री सुबोध चन्द्र मलिक, देशबन्धु चितरंजनदास और श्री बिपिन चन्द्र पाल ने 6 अगस्त, 1906 को श्री अरविन्द घोष के सम्पादकत्व में की थी। श्री अरिविन्द घोष पर मुकदमा चला और उनके साथ ही साथ ‘संध्या‘ के सम्पादक ब्राह्मबांधव उपाध्याय और ‘युगांतर‘ के सम्पादक श्री भूपेन्द्रनाथ दत्त पर भी। जब श्री अरविन्द घोष को सज़ा नहीं हो सकी तो ‘बन्देमातरम्‘ के प्रेस मैनेजर को जल भेज दिया गया। बाद में उन्होंने अंग्रेजी में ‘कर्मयोगी‘ और बंगला में ‘धर्म‘ नामक पत्र निकाले।

जहां तक हिन्दी पत्रों का सम्बन्ध है प्रारंभ में जो पत्र कलकत्ता से निकले, उन्हें सरकारी सहायता की अपेक्षा रहती थी, परंतु इस दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण भूमिका श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की थी, जिन्होंने 1868 में से ‘कवि वचन सुधा नामक एक कविता की पत्रिका निकाली परंतु बाद में उसमें गद्य भी सम्मिलित होता रहा। पहले वह मासिक थी, 1875 में साप्ताहिक हो गयी और अगले दस वर्ष तक हिन्दी तथा अंग्रेजी में निकलती रही। उस पत्र की क्या नीति थी, उसका दिग्दर्शन उसके मुख पृष्ठ पर छपने वाले उस सिद्धांत वाक्य से मिलता है जो इस प्रकार था -

खल-गननसों सज्जन दुखी मति होंहिं, हरिपद मति रहै।

अपधर्म छूटै, स्वत्व निज भारत गहै, करदुख बहै।

बुध तजहिं मत्सर, नारिनर सम होंहिं, जग आनंद लहै।

तजि ग्रामकविता, सुकविजन की अमृतबानी सब कहै।

इस पत्र में इस प्रकार ‘स्वत्व निज भारत गहै, करदुख बहै, नारिनर सम होंहिं‘ जैसे विचार प्रकट किये गये थे, जो उस समय के लिए क्रांतिकारी थे। जब ब्रिटेन के राजकुमार भारत आये तो उनके स्वागत में इस पत्रिका में एक कविता छपी, जिसके बारे में अंग्रेज़ अधिकारियों को समझाया गया कि इसमें श्लेष है और जिस शब्द ‘पाद्याघ्र्य‘ का प्रयोग किया गया है, उसका अर्थ जूतों से पीटना भी हो सकता है। इससे पहले मर्सिया नामक एक लेख के कारण उस पत्र की सरकारी सहायता बंद कर दी गयी और उनके दो अन्य पत्रों ‘हरिश्चन्द्र पत्रिका‘ और ‘बाला-बोधिनी‘ की जो सौ-सौ कापियां सरकार खरीदती थी, वो भी बंद कर दी गयीं। श्री हरिश्चन्द्र ने इसके बाद आनरेरी मजिस्ट्रेटी से इस्तीफा दे दिया। लेकिन यह पत्र बहुत लोकप्रिय हो गया। परंतु इस पत्र से भी अधिक महत्वपूर्ण यह हुआ कि श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जो अन्य मित्र थे जैसे कानपुर में श्री प्रताप नारायण मिश्र तथा इलाहाबाद में पंडित बालकृष्ण भट्ट, उन्होंने दो बड़े राजनीतिक पत्र निकाले जिनका बहुत जबर्दस्त प्रभाव हुआ। इलाहबाद से श्री बालकृष्ण भट्ट का हिन्दी ‘प्रदीप‘ निकला जो 1910 में ‘प्रेस एक्ट‘ के अंतर्गत बंद कर दिया गया। ‘ब्राह्मण‘ पत्र ने कानपुर में राष्ट्रीय पत्रों की परम्परा को जन्म दिया। लाहौर से श्री मुकुन्दराम के सम्पादकत्व में ‘ज्ञान प्रदायिनी‘ पत्रिका निकली। सन् 1885 में कालाकांकर से राजा रामपाल सिंह ने ‘हिन्दोस्थान‘ पत्र निकाला, जिसके प्रथम सम्पादक श्री मदनमोहन मालवीय थे। वे श्री बालकृष्ण भट्ट की परम्परा के थे और उन्होंने न केवल ‘हिन्दोस्थान‘ के द्वारा बल्कि बाद में अन्य पत्रों के द्वारा जिनका हम जिक्र कर चुके हैं, राष्ट्रीय आंदोलन को बढ़ाया। इसी पत्र में श्री बालमुकुन्द गुप्त और श्री अमृतलाल चक्रवर्ती जैसे सम्पादक काम करने आये, जिन्होंने दैनिक पत्रों के क्षेत्र में विशेषतया राजनीतिक पत्रकारिता में बहुत अधिक नाम कमाया।

कलकत्ता का एक प्रसिद्ध हिन्दी समाचारपत्र ‘भारत मित्र‘ था, जो 17 मई 1878 को पाक्षिक पत्र के रूप में निकला। बाद में यह दैनिक हो गया और इस पत्र ने राष्ट्रीय आंदोलन में बहुत बड़ा योगदान दिया। इस पत्र के प्रकाशक श्री दुर्गाप्रसाद मिश्र और श्री छोटू लाल मिश्र कश्मीरी थे। पचास वर्ष तक इस पत्र ने राष्ट्रीयता का प्रचार किया। कश्मीर को हड़पने की ब्रिटिश सरकार की योजना का इसने भंडाफोड़ किया और इसके सम्पादक श्री बालमुकन्द गुप्त ने लार्ड कर्जन के अत्याचारों पर ‘शिवशम्भु के चिट्ठे‘ नाम से जो टिप्पणियां कीं उससे बहुत जन-जागृति फैली। इसी के सम्पादक श्री दुर्गाप्रसाद मिश्र ने ‘उचित वक्ता‘ नामक पत्र भी निकाला। इसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी लिखते थे। कलकत्ता में हिन्दी के कई पत्र निकले, जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के सिलसिले में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। एक ‘स्वतंत्र‘ था जिसे श्री अम्बिका प्रसाद बाजपेयी ने चलाया था और हास्य का पत्र ‘मतवाला‘ था। श्री रामानंद चटर्जी ने अंग्रेजी में ‘माॅडर्न रिव्यू‘ और बंगाल में प्रवासी पत्र ‘प्रकाशित किये। हिन्दी में श्री बनारसीदास चतुर्वेदी के सम्पादकत्व में ‘विशाल भारत‘ निकला, जिसने न केवल विदेशों में रहने वाले भारतीयों की दुर्गति की ओर ध्यान दिलाया। बल्कि संसार की प्रगतिशील विचारधारा से हिन्दी जगत को परिचित कराया।

पंडित सुंदरलाल ने इलाहबाद से ‘कर्मयोगी‘ साप्ताहिक निकाला, जो उग्र विचारधारा का पत्र था और जिसमें अरविन्द घोष के ‘कर्मयोगी‘ तथा लोकमान्य तिलक के ‘केसरी‘ में प्रकाशित लेख भी छपते थे। बहुत शीघ्र ही इसकी प्रसार संख्या दस हज़ार प्रतियां हो गयीं और इससे तंग आकर भारत सरकार ने 1908 और 1910 के दमनकारी कानूनों के अंतर्गत इसे बंद करा दिया। श्री सुन्दरलाल जी की प्रेरणा और सहयोग से श्री शिवनारायण भटनागर ने उर्दू का ‘स्वराज्य‘ पत्र निकाला जिसके नौ सम्पादकों को राजद्रोह के अंतर्गत सज़ा हुई और एक के बाद एक जेल भेजे गये, कई को काले पानी की सजा हुई। बाद में 1910 के प्रेस कानूनों के अंतर्गत यह भी बंद हो गया। श्री सुंदरलाल ने साप्ताहिक ‘भविष्य‘ भी निकाला और वर्षों उसके सम्पादक रहे। उस पत्र के द्वारा उन्होंने राजनीतिक विचारधारा के प्रसार में बड़ा योगदान दिया।

स्वाधीनता प्रेमी हिन्दी पत्रकारों में श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम प्रमुख है। वे भी श्री बालकृष्ण भट्ट के शिष्य थे। सन् 1913 में उन्होंने कानपुर से साप्ताहिक ‘प्रताप‘ का प्रकाशन किया, जो स्वाधीनता आंदोलन का एक प्रमुख प्रचारक बन गया। उनको जब सज़ा मिली, अपने अग्रलेखों या समाचारों के कारण। हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रयास में वे 1931 में शहीद हो गये। सन् 1920 में श्री शिवप्रसाद गुप्त ने, जो कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे, श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर के सम्पादकत्व में जो ‘आज‘ निकाला, वो उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय समाचारों और विचारों का प्रबल समर्थक रहा। यद्यपि श्री पराड़कर उग्रवादी थे और क्रांतिकारी दल के सदस्य होने के नाते कलकत्ता की रोड़ा कम्पनी से कारतूसों की डकैती के मामले में जेल काट चुके थे, परंतु उन्होंने कांग्रेस विचारधारा के प्रसार में बड़ा योगदान दिया। इसी प्रकार आगरा से पंडित श्रीकृष्णदत्त पालिवाल का सैनिक‘ पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रबल राष्ट्रीय पत्र हो गया। इन पत्रों को चाहे ‘प्रताप‘ हो, ‘आज हो‘, ‘अभ्युदय‘ या ‘सैनिक‘ प्रत्येक को स्वाधीनता आंदोलन में बंद होना पड़ता था और उसके सम्पादक और प्रकाशक जेल जाते थे।

दिल्ली में प्रसिद्ध कांग्रेसी नेता स्वामी श्रद्धानंद ने हिन्दी में ‘वीर अर्जुन और उर्दू में ‘तेज‘ का प्रकाशन शुरू किया। ये दोनों पत्र राष्ट्रीय आंदोलन के प्रबल पक्षधर रहे और स्वामी श्रद्धानंद के बलिदान के बाद पंडित इन्द्र विद्या वाचस्पति और श्री देशबन्धु गुप्त इन्हें चलाते रहे। वे स्वयं भी प्रमुख कांग्रेस नेता रहे।

लाहौर में महाशय खुशहाल चन्द खुरसंद ने ‘मिलाप‘ और महाशय कृष्ण ने उर्दू पत्रों का प्रकाशन किया और ये पत्र भी राष्ट्रीय आंदोलन के प्रचारक रहे। पंजाब में राष्ट्रीय पत्रों की परम्परा काफी पुरानी रही है। सन् 1881 में सरदार दयाल सिंह मजीठिया ने श्री सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के परामर्श से श्री शीतलाकांत चटर्जी के सम्पादकत्व में अंग्रेजी पत्र ‘ट्रिब्यून‘ का प्रकाशन प्रारंभ किया। कुछ दिनों तक श्री बिपिनचन्द्र पाल ने भी इस पत्र में सम्पादन किया और बाद में 1917 से श्री कालीनाथ राय, जो पहले ‘बंगाली‘ पत्र में काम कर रहे थे और जो 1911 में लाला लाजपतराय के ‘पंजाबी‘ पत्र के सम्पादक हुए थे, इसके सम्पादक हो गये और दिसम्बर, 1945 तक इसके सम्पादक रहे। पंजाब के राष्ट्रवादी पत्रकारों में एक अत्यंत गौरवशाली नाम सूफी अम्बा प्रसाद का है, जिन्होंने पंजाब से ‘हिन्दुस्थान‘ ‘देशभक्त‘, और ‘पेशवा‘ जैसे समाचारपत्रों में काम किया था। सन् 1890 में उन्होंने अपने जन्म स्थान मुरादाबाद से एक उर्दू साप्ताहिक ‘जाम्युल इलूम‘ नाम का एक पत्र निकाला था और 1897 में उन्हें एक लेख के कारण उेढ़ साल के लिए जेल भेज दिया गया था। 1901 में वे जेल से छूटे और उन्होंने फिर उसी प्रकार के विचार लिखने शुरू किये, जिसके लिए उन्हें छह वर्ष की जेल हुई और उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। 1906 में जब वे जेल से छूटे तो फिर लाहौर के ‘हिन्दुस्थान‘ पत्र में काम करने लगे। जब सरदार अजीत सिंह ने भारतमाता सोसायटी स्थापित की तो सूफी अम्बा प्रसाद उनके साथ हो गये। बाद में जब सरदार अजीत सिंह को देश निकाला हो गया, तो वे नेपाल भाग गये, लेकिन अंग्रेज सरकार ने उन्हें पकड़वा मंगाया। वे जब तक भारत में रहे, लाला हरदयाल के साथ पुस्तकें लिखने और पत्रों में लेख लिखने का काम करते रहे। बाद में वे ईरान चले गये, वहां जब प्रथम युद्ध के समय ब्रिटिश सेना का ईरान पर कब्जा हो गया तो उन्हें गोलियों से उड़ा दिया गया।

भारत का कोई प्रांत ऐसा नहीं था जिसने राष्ट्रीयता का प्रचार करने वाले पत्रों और पत्रकारों को जन्म न दिया हो। बम्बई से बाम्बे क्रोनिकल‘ तो निकला ही, उसके ही एक सम्पादक श्री बी.जी. होर्नीमैन, ने ‘बाम्बे क्रोनिक‘ को उग्र राष्ट्रीयता का एक प्रबल पत्र बना दिया। तथा बोंबे सेंटीनल निकाला उन्होंने सत्याग्रह सभा की कार्रवाइयों में भाग लिया और जलियांवाला हत्याकांड अत्याचारों की जो रिपोर्टें छापीं, उसके कारण उनके संवाददाता श्री गोवर्धन दास को फौजी अदालत से तीन साल की सजा हुई और श्री होर्नीमैन को जो बीमार थे, पकड़कर इंग्लैण्ड वापस भेज दिया गया। बम्बई में ही श्री अमृतलाल सेठ ने गुजराती ‘जन्मभूमि‘ को जो काठियावाड़ की रियासतों की प्रजा के पत्र के रूप में निकला था, राष्ट्रीय आंदोलन का प्रबल संवाहक बनाया। इसी प्रकार का दूसरा गुजराती पत्र श्री सावंलदास गांधी का ‘सांझ वर्तमान‘ था। श्री सांवलदास गांधी ने सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में महत्वपूर्ण भाग लिया था और जूनागढ़ सरकार के विरुद्ध समानांतर सरकार बनायी थी, जिसने 1947 में जूनागढ़ के नवाब को भारत छोड़कर जाने के लिए विवश किया। सिंध में साधु टी. एल वासवानी ने ‘न्यू टाइम्स‘ निकाला और सिधी पत्र ‘हिन्दू‘ के तीन सम्पादक श्री जयराम दास दौलतराम, डाक्टर चैइथराम गिडवानी और श्री हीरानंद कर्मचंद गिरफ्तार किये गये, प्रेस बंद कर दिया गया और सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। सन् 1932 के आंदोलन में सम्पादक और प्रबंध विभाग के सारे कर्मचारी गिरफ्तार कर लिये गये थे। सन् 1942 में इसका प्रकाशन गांधीजी की अपील पर बंद कर दिया गया।

बिहार के राष्ट्रीय पत्रों में श्री सच्चिदानंद सिन्हा द्वारा स्थापित ‘सर्चलाइट‘ पत्र श्री मुरली मनोहर सिन्हा के सम्पादकत्व में राष्ट्रीय आंदोलन का बड़ा पक्षधर रहा। बिहार के हिन्दी पत्रों में श्री देवव्रत शास्त्री द्वारा स्थापित ‘नवशक्ति‘ और ‘राष्ट्रवाणी‘ राष्ट्रीय आंदोलन के पत्र रहे। ‘साप्ताहिक योगी‘ और ‘हुंकार‘ ने भी जनजागरण में योगदान दिया। बंगाल में श्री हेमंत प्रसाद घोष ने 1914 में ‘बसुमती‘ की स्थापना की थी और श्री मृणाल कांति घोष, श्री प्रफुल्ल कुमार सरकार, व सुरेशचंद्र मजूमदार ने ‘आनंद बाज़ार पत्रिका‘, जो आज भी बंगला भाषा का सबसे बड़ा पत्र है की स्थापना की। श्री चितरंजन दास ने 1923 में ‘फारवर्ड‘ पत्र निकाला था और इन सब पत्रों का राष्ट्रीय आंदोलन में बड़ा योगदान रहा। मद्रास में श्रीमती एनी बेसेंट ने ‘मद्रास स्टेंडर्ड‘ पत्र को खरीद कर उसका नाम ‘न्यू इंडिया‘ कर दिया और 14 जुलाई 1914 से अपने सम्पादकत्व में उसे निकालना प्रारंभ किया। यह पत्र भी दक्षिण भारत में होम रूल आंदोलन और कांग्रेस आंदोलन का प्रबल पक्षधर था। इस पत्र के विरूद्ध कार्रवाई शुरू की गयी, पहले दो हजार रुपये की और फिर दस हजार रुपये की जमानत मांगी गयी और श्रीमती एनी बेसेंट को नजरबंद कर दिया गया।

स्वतंत्रता आंदोलन में पत्रकारों के योगदान का इतिहास वस्तुतः स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास है क्योंकि या तो पत्र का सम्पादक स्वयं स्वतंत्रता का नेता हो गया या नेता ने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए पत्र निकालना आवश्यक समझा। अगर श्री चितरंजन दास ‘फारवर्ड‘ था तो श्री जे. एम. सेनगुप्त का ‘एडवांस‘ था, श्री मोहम्मद अली का ‘कामरेड‘ था या मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का ‘अल हिलाल‘ था। मौलाना अबदुल बारी ने ‘हमहम‘ निकाला था, सर्वेन्ट आफ इंडिया सोसाइटी ने नागपुर से ‘हितवाद‘। श्री माखनलाल चतुर्वेदी ने पहले जबलपुर से और फिर खण्डवा से ‘कर्मवीर का प्रकाशन किया और श्री विजय सिंह पथिक ने ‘राजस्थान‘ पत्र का, जो बाद में ‘तरुण राजस्थान‘ हो गया। पूना का ‘ज्ञान प्रकाश‘ और ‘इन्दु प्रकाश‘, लखनऊ का ‘एडवोकेट‘ आदि ऐसे अनेकों पत्र और पत्रिकाएं थीं, जिनका नाम स्वाधीनता संग्राम से जुड़ा हुआ है। कुछ ने पत्रकारों की एक नयी श्रृंखला ही उत्पन्न कर दी जिनमें श्री टी. प्रकाशन द्वारा स्थापित मद्रास का ‘स्वराज्य‘ या श्री मूलचंद अग्रवाल द्वारा स्थापित ‘विश्वमित्र‘ उल्लेखनीय हैं। देशी राज्यों में भी बहुत से समाचार पत्र निकले। यद्यपि उन्हें पड़ोस के अंग्रेजी इलाकों से निकालना ज़्यादा सुरक्षित होता। केरल के ‘मुलयाली मनोरमा‘ को सरकार का कोपभाजन होना पड़ा और कालीकट का ‘मातृभूमि‘ तो मलयालम भाषा में स्वाधीनता का प्रबल समर्थक था। इसी प्रकार का पत्र कर्नाटक में हुबली में स्थापित ‘संयुक्त कर्नाटक‘ अथवा मद्रास की तेलगु, आंध्र पत्रिका‘ था या ‘स्वदेश मित्रम‘ जो तमिल में छपता था और उड़िया पत्र समाज का ‘आसाम ट्रिब्यून‘ और ‘नूतन असमिया‘ थे। यदि राष्ट्रीय आंदोलन के पास ये सारे उपलब्ध न होते तो हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप क्या होता, यह कहना कठिन है।

1 comment:

  1. बहुत ही अच्‍छा एवं सराहनीय
    हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और शुभकामनायें
    कृपया अन्य ब्लॉगों पर भी जाकर अपने अमूल्य
    विचार व्यक्त करें

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